स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी | Swami Dayanand Saraswati Biography in Hindi

स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय | Swami Dayanand Saraswati Biography


Swami Dayanand Saraswati Biography in Hindi

Swami Dayanand Saraswati Biography in Hindi

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म और शिक्षा - स्वामी दयानंद सरस्वती का मूल नाम "मूल शंकर" था। इनका जन्म काठियावाड़ में मोरवी नामक राज्य के टंकारा नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता एक धनी जमींदार थे। वे संस्कृत के शौकीन थे। अतः उन्होंने इन्हें संस्कृत पढ़ाने के लिए एक पंडित को नियुक्त किया। मूल शंकर कुशाग्र बुद्धि संपन्न थे अतः वे जल्दी ही संस्कृत सीख गए।

 

मूल शंकर का सन्यासी बनना - मूल शंकर के पिता जी शिव के भक्त थे। अतः उनके घर शिवरात्रि का पर्व बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता था। जब मूल शंकर 14 वर्ष के थे तब उन्होंने भी शिवरात्रि का व्रत बड़ी श्रद्धा के साथ रखा उन्होंने सारी रात जागकर शिव नाम का जाप करने का निश्चय किया। आधी रात बीत जाने के बाद सभी लोग सो गए लेकिन मूल शंकर जागते रहे।


इसी बीच उन्होंने देखा कि एक चूहा बिल में से निकल कर शिवलिंग पर उछल कूद मचाने लगा यह देखकर मूल शंकर की श्रद्धा डोल गई। वे सोचने लगे कि जो भगवान शिव चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर सकता वह भला  संसार की रक्षा क्या कर सकता है। मूल शंकर ने उसी समय भोजन खाकर व्रत तोड़ दिया।

 

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मूल शंकर का घर से भागना - भगवान शिव के प्रति मूल शंकर की श्रद्धा तो पहले ही डोल चुकी थी लेकिन बहन और चाचा की मृत्यु ने इसे और भी धक्का पहुंचाया।  अब वे जीवन, मृत्यु, सृष्टि आदि के संबंध में सोचने लगे। इस विचारधारा ने उन्हें संसार से विरक्त कर दिया। संसार से  बेटे की उदासीनता को जानकर पिता ने उनका विवाह करना चाहा। विवाह की भनक पाते ही मूल शंकर घर से भाग गए। उन्हें पकड़ कर लाया गया, परंतु मौका पाते ही वे फिर भाग गए। 


ज्ञान प्राप्ति  - ज्ञान की खोज में स्वामी दयानन्द  अनेक  साधु - सन्यासियों को मिले। इसी खोज में उनका संपर्क एक वैदांतिक सन्यासी से हुआ। इनसे उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने इन्हें शुद्ध चैतन्य कहकर पुकारा। लेकिन उनकी ज्ञान की भूख अभी भी न मिटी  थी। वे ज्ञान की भूख को मिटाने के लिए फिर भटकने लगे। 


स्वामी दयानंद सरस्वती के रूप में उभरना - अब उनकी मुलाकात नर्मदा नदी के तट पर चणौद कल्याणी नामक स्थान पर स्वामी पूर्णानंद से हुई। उनसे इन्होंने कुछ ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी पूर्णानंद ने इन्हें स्वामी दयानंद सरस्वती कहकर पुकारा। स्वामी पूर्णानंद ने मूल शंकर की ज्ञान में रुचि को देखते हुए उन्हें अपने प्रज्ञा-चक्षु शिष्य विरजानंद के पास भेज दिया। यहीं पर उन्होंने वेद वेदांगों  का खूब अध्ययन करके वेदों का प्रचार करना आरंभ कर दिया। उन्होंने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए योगाभ्यास भी करना आरंभ कर दिया। 

 

समाज सेवा - स्वामी दयानंद सरस्वती के समय समाज कई प्रकार की कुरीतियों  में फंसा हुआ था। अतः स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने आपको समाज सुधार के कार्यों में लगा दिया। उन्होंने बाल विवाह के विरुद्ध लोगों को तैयार किया।  विधवा की पुनर्विवाह करने की जरूरत पर जोर दिया। स्त्री शिक्षा की जरूरत पर लोगों में जागृति पैदा की।


धर्म के क्षेत्र में उन्होंने पाखण्डो का विरोध किया। उन्होंने संस्कृत शिक्षा पर भी बल दिया। धर्म बदलने वाले हिंदुओं को पुनः हिंदू बनाने के लिए शुद्धि की व्यवस्था की। उन्होंने जाती पाती का भी विरोध किया। भारत को स्वतंत्र करवाने की आवश्यकता पर भी उन्होंने जोर दिया।


आर्य समाज की स्थापना - स्वामी दयानंद ने जिस धर्म का प्रचार किया, उसे वैदिक धर्म का नाम दिया गया इसमें उन्होंने वेदों और वेदांगो  कि अपनी दृष्टिकोण से व्याख्या की। अपने विचारों का प्रचार करने के लिए उन्होंने 'सत्यार्थ प्रकाश' की हिंदी भाषा में रचना की।


इस प्रकार स्वामी दयानंद ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए एक संस्था की स्थापना 31 दिसंबर  1874 को राजकोट में की। इस संस्था को "आर्य समाज" का नाम दिया गया। स्वामी दयानंद ने आर्य समाज के सिद्धांतों को 10 नियमों में सीमित कर दिया। हर आर्य समाजी के लिए इन सिद्धांतों को मानना जरूरी है। राजकोट में आर्य समाज की स्थापना के पश्चात देशभर में इसका जाल फैलता गया। 


स्वामी दयानंद सरस्वती की रचनाएं - स्वामी दयानंद की जो भी रचनाएं मिलती है वे सभी आर्य समाज के सिद्धांतों से ही संबंध रखती है। उन्होंने अपने ही दृष्टिकोण से वेदों की व्याख्या की। इसके अतिरिक्त उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश संस्कार विधि आर्योदय शिष्य आदि ग्रंथ भी लिखें। 


स्वर्गारोहण - जोधपुर का राजा, स्वामी दयानंद का भक्त था। एक बार प्रचार करते हुए स्वामी दयानंद जोधपुर के राजमहल में पहुंचे। वहां वे यह देखकर चकित हो गए कि जोधपुर का राजा, नन्ही जान नामक वेश्या की,जिस पर वे आसक्त थे, पालकी को कंधा दे रहे थे। स्वामी दयानंद इसे सहन न कर सके।


उन्होंने राजा से कहा,  "सिंह कुत्तिया का संग नहीं किया करते।" नन्हीं जान नामक वेश्या यह न सकी कि कोई उसे 'कुत्तिया' कहे । अतः उसने स्वामी दयानंद से बदला लेने की ठान ली। उसने रसोइए को अपने साथ मिला लिया और भोजन में स्वामी दयानंद को विश दे दिया। जब स्वामी जी को विष  का पता लगा तो देर हो चुकी थी। 


वे योगाभ्यास द्वारा अपने शरीर से विश को निकाल नहीं सके। इस प्रकार 30 अक्टूबर 1883 को दिवाली के दिन 59 वर्ष की आयु में स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपना शरीर त्याग दिया।


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